श्रीतन्त्रालोक के प्रथम आह्निक के विवेक भाष्य में वर्णित श्रीकण्ठ संहिता का वह उद्धरण जिसके अनुसार अद्वैत, द्वैत व द्वैताद्वैत शैव मार्ग के पुनरोत्थान हेतु स्वयं भगवान शिव, भगवान श्री कण्ठ के रूप में महर्षि दुर्वासा को शैव मत के प्रचार हेतु नियुक्त करते हैं एवं आगे चल कर श्री सोमानन्द को पर्वत कि शिला ‘शिवोपल’ पर उत्कीर्ण सूत्रों का प्रचार करने हेतु नियुक्त करते हैं इस बात का द्योतक है कि दिव्य कार्यों में महापुरुषों का नियोजन दैवीय इच्छा से होता है। श्री स्वामी जी का दतिया में रुकना भी दैवीय आज्ञा का प्रताप था जिसे स्वयं उन्होंने कई सेवकों को और भक्तों को अपने श्री मुख से बताया ।
श्री स्वामी जी ने श्री वनखण्डेश्वर के परिसर में रुक कर जो तप किया उसी तप के प्रभाव से अव्यक्ता अमूर्त लेकिन परम कृपालु भगवती श्री पीताम्बरा माई, अपने दो अन्य स्वरूपों भगवती श्री माई एवं भगवती धूमा माई के साथ पीठ में एवम् भगवती श्री तारा माई के रूप में पीठ परिसर के बाहर अपनी संतानों का स्नेह से सिंचन कर रहीं हैं। भक्त जनों को माई का यह स्नेह प्राप्त कराने का श्रेय केवल श्री स्वामी जी महाराज को ही जाता है। श्री स्वामी जी की कृपा का ही प्रताप है की श्री पीताम्बरा पीठ में हम सब को माई के मातृ वात्सल्य परिपूर्ण स्वरूप के दर्शन होते हैं नहीं तो अंधविश्वास के अधीन समाज में श्री पीताम्बरा माई के तो उग्र स्वभाव की ही चर्चा होती है।
श्री स्वामी जी का निष्णात निगमागम ज्ञान और उन पर व्याप्त माई की अगाध कृपा उनके पास आने वाले लोगों को चमत्कृत कर देती है। उनके शिवत्व प्राप्ति का सबसे मूर्त प्रमाण यह है कि उनके पास आने वाले हर व्यक्ति को यह प्रतीत होता है कि श्री स्वामी जी सबसे ज्यादा उसी को मानते हैं। श्री स्वामी जी केवल देवी भक्त एवं महान संत ही नहीं हैं अपितु वह महान राष्ट्र भक्त भी हैं। सन् १९६२ में जब भारत चीन से पराजित होने लगा तो उन्होंने पीठ में महान राष्ट्र रक्षा अनुष्ठान कराया जिसमें तान्त्रिक अनुष्ठान एवं श्री स्वामी जी के तपोबल की आहूतियों ने चीनी सेना को पीछे हटा कर वह कर दिखाया जिसकी बातें हम महर्षि दधीचि इत्यादि की कथा के रूप में सुनते हैं। दतिया आगमन के उपरांत कराए गए हरि नाम संकीर्तन एवं दलित और मुसलिम समाज के प्रति स्नेह को व्यक्त कर उन्हें ‘विश्वमयं विश्वोत्तीर्णं’ को चरितार्थ कर दिया। श्री स्वामी जी द्वारा करवाया गया ब्रह्म यज्ञ उनकी वेदों के प्रति अगाध आस्था का परिचायक है। श्री स्वामी जी अध्ययन के प्रति समर्पित एवं स्वाध्याय रत संत हैं। उन्होंने स्वयं नाना संस्कृत ग्रन्थों का भाषानुवाद किया एवं नाना ग्रन्थों का अपने शिष्यों को अध्ययन भी कराते रहे हैं। ग्रन्थ अध्ययन के प्रति उनके प्रेम का परिणाम है कि उनके ग्रन्थागार में तीन हजार से भी ज्यादा पुस्तकें सुरक्षित हैं।