भारतवर्ष के हृदय क्षेत्र मध्य प्रदेश में स्थित दतिया नामक नगर अपने पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व के लिए विश्व विख्यात है। कहा जाता है कि इस नगर का नाम शिशुपाल के भाई दन्तवक्त्र के नाम पर पड़ा जो कि कालान्तर में दतिया नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जुलाई १९२९ को एक युवा संन्यासी झाँसी से ग्वालियर जाते हुए एक रात के लिए इस नगर में रुके। इस छोटे से शहर में संस्कृत के नाना उद्भट विद्वानों को देखकर वे यहीं के हो कर रह गए। उन महात्मा का नाम कोई नहीं जानता था इसलिए नगरवासी उन्हें ससम्मान ‘श्री स्वामी जी महाराज’ कहने लगे। नगर के विविध स्थानों पर रहते हुए दिसंबर १९२९ को वे श्री वनखण्डेश्वर परिसर में पहुँचे। इस स्थान को देखते ही यहाँ पूर्व में हुई तपस्याओं का तेज उन्हें प्रतीत हुआ, जिससे आनंन्दित हो त्रिकालज्ञ श्री स्वामी जी ने वहीं पर रहकर तप करने का निश्चय किया। परिसर में ही एक छोटा सा कमरा था जिसपर खपरैल की छत थी एवं उत्तर दिशा में एक टूटा दरवाज़ा था, जो बन्द तक नहीं होता था। श्री स्वामी जी ने इसी कक्ष में पाँच वर्ष तक तपस्या करने के पश्चात ज्येष्ठ कृष्ण पञ्चमी संवत् 1992 विक्रमी (1935 ई०) को श्री पीताम्बरा माई की प्राण प्रतिष्ठा की। आज यह कक्ष माई के मन्दिर का गर्भ गृह है और यह स्थान समस्त ब्रहमाण्ड में श्री पीताम्बरा पीठ के नाम से विख्यात है।
वर्णित महाभाग भगवती श्री पीताम्बरा के अलावा, पीठ अन्य देवताओं के तेज से दैदीप्यमान है। पीठ में भगवती श्री विद्या, भगवती श्री धूमावती, श्री वनखण्डेश्वर महादेव जी, श्री विद्या साधना के प्रधान ऋषियों में भी अग्रणी भगवान श्री परशुराम, श्री हनुमान जी, श्री कालभैरव जी एवं श्री बटुक भैरव जी, तन्त्रशास्त्र के आख्याता श्री षडाम्नाय शिव, श्री स्वामी जी की समाधि पर विराजमान श्री अमृतेश्वर महादेव, भगवती श्री पीताम्बरा द्वारा भगवान कच्छप की सहायता हेतु किए गए चरित्र निर्वहन के प्रतीक रूप में श्री हरिद्रा सरोवर एवं अपने मंदिर, कक्ष एवं पीठ के कण-कण में जीवंत श्री स्वामी जी महाराज की साक्षात उपस्थिति से पीठ उद्दीप्त है।
इन समस्त देवताओं की कृपा से सिंचित पीठ से यह राष्ट्र एवं माई के भक्त अनुगृहीत हैं।